जागते रहते हो रातों को बराबर किस लिए कुछ न कुछ तो बात है सोते हो दिन-भर किस लिए तुम से क्या देखा नहीं जाता मिरा दम तोड़ना जा रहे हो वर्ना मेरे पास आ कर किस लिए कुछ न कुछ तो ग़ैर से रिश्ता तुम्हारा है ज़रूर रोज़ आते जाते हो उस के मकाँ पर किस लिए ये शरारत है ख़ुदा मा'लूम या इज़हार-ए-‘इश्क़ देखते हो मेरी जानिब मुस्कुरा कर किस लिए और क्या तक़्सीर है मेरी मोहब्बत के सिवा है ख़फ़ा मुझ से तू ऐ शोख़-ए-सितमगर किस लिए फिर किसी को दाम में लाने की तय्यारी है क्या काटता है बाग़ में सय्याद चक्कर किस लिए हज़रत-ए-'हाजिर' किसी की जुस्तुजू है आप को मारे-मारे फिर रहे हैं आप दर-दर किस लिए