जहाँ है मकतब-ए-हस्ती सबक़ है चुप रहना

जहाँ है मकतब-ए-हस्ती सबक़ है चुप रहना
बड़ा गुनाह यहाँ है अलिफ़ से बे कहना

शब-ए-फ़िराक़ में साए से डर के कहता हूँ
अजी ये रात डरानी है जागते रहना

चमन में फूल खिले बाग़ में बहार आई
उरूस-ए-दहर ने गोया पहन लिया गहना

हमारी आह-ओ-बका से है जिस्म-ए-शौक़ क़वी
ये हाथ बायाँ है अपना वो हाथ है दहना

फ़ुग़ान-ए-बुल्बुल-ए-शैदा न जानिए इस को
बजा रहा है कोई सेहन-ए-बाग़ में शहना

ग़म-ए-फ़िराक़ में ऐ आसमाँ नहीं मौक़ूफ़
वो जो सुहाएँ मुझे मुझ को हर तरह सहना

निकाल दे कि है ऐसे में जू-ए-अश्क-ए-रवाँ
बुरा है बात का ऐ चश्म-ए-दिल में ले रहना

गली में यार की हो या किसी ख़राबे में
हमें तो हश्र के दिन तक कहीं पे मर रहना

असर भी 'शाद' के शे'रों में है मतानत भी
ये कोहना-मश्क़ हैं इन की ग़ज़ल का क्या कहना


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close