जहाँ तुझ को बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले वो मंदिर और होते हैं शिवाले और होते हैं दहान-ए-ज़ख़्म से कहते हैं जिन को मर्हबा बिस्मिल वो ख़ंजर और होते हैं वो भाले और होते हैं जिन्हें महरूमी-ए-तासीर ही अस्ल-ए-तमन्ना है वो आहें और होती हैं वो नाले और होते हैं जिन्हें हासिल है तेरा क़ुर्ब ख़ुश-क़िस्मत सही लेकिन तिरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं जो ठोकर ही नहीं खाते वो सब कुछ हैं मगर वाइज़ वो जिन को दस्त-ए-रहमत ख़ुद सँभाले और होते हैं तलाश-ए-शम्अ से पैदा है सोज़-ए-ना-तमाम 'अख़्तर' ख़ुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं