जहाँ ऊँची इमारत है वहीं मिट्टी का भी घर है ये क़ब्रिस्तान को देखो ज़रा कितना बराबर है समुंदर की ख़मोशी भी तो इक दिन टूट जाती है मगर कैसे भला टूटे जो तेरे इन लबों पर है बहुत तड़पा रहे हो बाप को रस्ते में तुम लेकिन उसी रस्ते में है बेटा अजब कैसा ये चक्कर है हक़ीक़त ज़िंदगी की खुल गई मुझ पर कि दुनिया में ज़मीं पर संग है हीरा मगर मिट्टी के अंदर है ये कैसा ज़ख़्म है अब तक हरा है क्यों नहीं भरता यहाँ मरहम नहीं है वक़्त के हाथों में ख़ंजर है बहुत पर्दे हैं इस कम्बख़्त के किरदार पर 'फ़ाएज़' कि चाँदी की कोई पन्नी किसी पत्थर के ऊपर है