चला हूँ अपनी मंज़िल की तरफ़ तो शादमाँ हो कर कहीं मायूसी-ए-दिल हो न रहज़न पासबाँ हो कर हमारी दास्ताँ हो कर तुम्हारी दास्ताँ हो कर कहाँ पहुँची मोहब्बत कारवाँ-दर-कारवाँ हो कर मिरे ज़ौक़-ए-उबूदिय्यत की तकमील ऐ मआज़-अल्लाह जबीं इनआम-ए-सज्दा दे रही है आस्ताँ हो कर ख़ुद अपने सोज़ से जलना तो हर इक शम्अ को आया वो परवाना जो ख़ाकिस्तर है सोज़-ए-दिगराँ हो कर कली का मुस्कुराना कह रहा है दास्ताँ उन की ख़िज़ाँ जब आई हमराह-ए-बहार-ए-गुलिस्ताँ हो कर हमें उजड़े नशेमन की जब अपने याद आती है क़फ़स की तीलियाँ जलती हैं शाख़-ए-आशियाँ हो कर 'फ़िगार' आह-ओ-फ़ुग़ाँ से कम न थी अज़्मत मिरे ग़म की मगर कुछ और रुत्बा बढ़ गया सोज़-ए-निहाँ हो कर