जहाँ न दोस्त न गुलचीं न बाग़बाँ मेरा फिर इस चमन में रहे क्यूँकर आशियाँ मेरा शरीक-ए-हाल बुरे वक़्त में ये होता है सिवाए ग़म के नहीं कोई मेहरबाँ मेरा इलाही ख़ाना-ए-सय्याद पर गिरे बिजली कि फ़स्ल-ए-गुल में जलाया है आशियाँ मेरा कुछ आज-कल के सितम का गिला नहीं उस से अज़ल के रोज़ से दुश्मन है आसमाँ मेरा तुम्हारे ग़म के सिवा मेरी जान दुनिया में न कोई दोस्त है मेरा न मेहरबाँ मेरा न ख़ौफ़ चर्ख़ का फिर हो न ग़ैर का खटका जो तुम हो मेरे तो जानो कि है जहाँ मेरा वो फ़ाश करता है पर्दा तो ये छुपाती है ज़मीन दोस्त है दुश्मन है आसमाँ मेरा ज़बाँ वो 'दाग़' के सदक़े में पाई है 'महमूद' कि शायरी में नहीं कोई हम-ज़बाँ मेरा