जहाँ ने ग़म दिया ग़म ने मुझे सच्चाइयाँ बख़्शीं नज़र को वुसअ'तें और फ़िक्र को गहराइयाँ बख़्शीं करम-फ़रमाइयाँ अहल-ए-जहाँ की याद आएँगी दबी चोटों को मौसम ने अगर पुरवाइयाँ बख़्शीं कहाँ आती थी अहल-ए-अंजुमन की नाज़-बरदारी चलो अच्छा हुआ उस ने मुझे तन्हाइयाँ बख़्शीं ब-पास-ए-वज़ा-दारी अब भी उन गलियों में जाता हूँ जहाँ के रहने वालों ने मुझे रुस्वाइयाँ बख़्शीं मिरी क़िस्मत में तो लिक्खे हैं यारो दर्द ग़म आँसू मुझे कब रास आएँगी अगर शहनाइयाँ बख़्शीं मुक़य्यद थे अगरचे शीश-महलों में हसीं पैकर मगर रौशन चराग़ों ने हमें परछाइयाँ बख़्शीं तिलिस्म-ए-बे-हिसी टूटा शुऊ'र-ए-आगही जागा निगाह-ए-शौक़ ने जब हुस्न को अंगड़ाइयाँ बख़्शीं हमारे अश्क-ए-ग़म 'तालिब' शरारे ही सही फिर भी शरारों ही ने रू-ए-ज़ीस्त को रानाइयाँ बख़्शीं