ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ इन बड़े लोगों से मिल कर बड़ा नुक़सान हुआ मात अब के भी चराग़ों को हुई है लेकिन चाक इस बार हवा का भी गरेबान हुआ ओढ़े फिरता हूँ शहादत की लहू-रंग क़बा रंग तेरा था सो वो ही मिरी पहचान हुआ आदतन आँख छलक उट्ठी है हँसते हँसते तू मिरे दोस्त बिला-वज्ह परेशान हुआ तेज़ पानी की सी आवाज़ गले से निकली और सुन कर इसे ख़ंजर बड़ा हैरान हुआ शाख़-ए-दिल पर न खिला अब के बरस एक भी फूल कैसा आबाद था ये बाग़ जो वीरान हुआ दोस्त क्या अब तो मुनाफ़िक़ भी कोई साथ नहीं सूखे फूलों से भी महरूम ये गुल-दान हुआ आज इस दर्जा मोहज़्ज़ब जो नज़र आता है ये वो इंसान है सदियों में जो इंसान हुआ दिल से जाता नहीं 'तारिक़' किसी काफ़िर का ख़याल हम मुसलमान हुए दिल न मुसलमान हुआ