ज़ेहन-ओ-ख़याल से कोई चेहरा न जा सका और उस के आगे हम से भी सोचा न जा सका इक जान थी जो नज़्र गुज़ारी न जा सकी इक क़र्ज़ था जो हम से उतारा न जा सका हम ने हज़ार जश्न सहर के मना लिए और बाम-ओ-दर से रात का साया न जा सका कितने तबाह होंगे हम इक शख़्स के लिए ख़ुद से कभी सवाल ये पूछा न जा सका कुछ पल को हो गया था मैं भड़का हुआ चराग़ कुछ देर आँधियों से भी सँभला न जा सका बस इक लरज़ता हाथ मिरे होंट सी गया और फिर तमाम ज़िंदगी बोला न जा सका हम उस को सारी उम्र उठाए फिरा किए जो बार 'मीर' से भी उठाया न जा सका 'तारिक़' ये दिल भी है ख़त-ए-तक़्दीर की तरह हम ख़ुद बदल गए इसे बदला न जा सका