ज़ेहन रहता है बदन ख़्वाब के दम तक उस का फिर वही रंज वही खेमा-ए-ग़म तक उस का मेरी आँखें मेरी दहलीज़ पे रख देता है ख़ास है मेरे लिए शौक़-ए-सितम तक उस का है मेरे आब-ए-मोहब्बत से वो शादाब बहुत मेरी पहचान में है क़ामत-ए-नम तक उस का बादबाँ अब तो हवाओं को भी पहचानते हैं हाथ पहुँचा है बहुत देर में हम तक उस का दिल-ए-अफ़सुर्दा सर-ए-शाम सुलग उठता है साहिल-ए-जाँ रखे अब कैसे भरम तक उस का वो तो झोंके की तरह आ के गुज़र जाता है दश्त-ए-जाँ उस का है और ख़्वाब-ए-इरम तक उस का कू-ए-एहसास तिरे हौसले तस्लीम मगर सेहन-ए-ज़िंदाँ ही लगे नक़्श-ए-क़दम तक उस का बात आईने से करने को भी मौक़ा ढूँडें ख़ल्वत-ए-शौक़ तराशे है सनम तक उस का