जहान-भर से न यूँ मेरा तज़्किरा कीजे मैं दिल का राज़ हूँ दिल से मिरा गिला कीजे ये क्या यक़ीं कि समझ लेगा हर इशारा वो लबों का फ़र्ज़ निगाहों से क्यूँ अदा कीजे नसीब में जो कभी सुब्ह का उजाला हो तो मिल ही जाएगा हर रात क्या दुआ कीजे ख़ुलूस को भी यहाँ मस्लहत कहेंगे लोग भला यही है किसी से न जो भला कीजे दर-ए-हवस पे है हर-लहज़ा इक नई दस्तक जो ख़ुद से छुपते न फिरये तो और क्या कीजे ये जी में है कि तिरा बुत तराश कर बरसों तिरे हुज़ूर खड़े अर्ज़-ए-मुद्दआ कीजे तुम्हारे हाल से हम बे-ख़बर नहीं 'अंजुम' पर अब बताओ कि क्या रंज के सिवा कीजे