जहान-ए-रंग-ओ-बू में क्या नहीं है मगर कोई कहीं तुझ सा नहीं है बहुत फैला है ये शहर-ए-तमन्ना यहाँ मुमकिन सुकूँ पाना नहीं है हँसे जो आबला-पाई पे तेरी वो तेरा हम-सफ़र तेरा नहीं है न इतरा इस क़दर बाद-ए-ख़िज़ाँ तू कोई पत्ता अभी सूखा नहीं है नहीं कोई नहीं है मेरे जैसा मिरा साया भी मुझ जैसा नहीं है जिसे सदियों से ख़ून-ए-दिल से सींचा वो गुलशन आज भी अपना नहीं है वो जिस से 'नाज़' तुम घबरा रहे हो कोई आसेब या साया नहीं है