जहान-ए-रंग-ओ-बू में मुस्तक़िल तख़्लीक़-ए-मस्ती है चमन में रात भर बनती है और दिन भर बरसती है निगाह-ए-इश्क़ ओ चशम-ए-हुस्न दो सावन के बादल है ये जब मिलते हैं दिल पर एक बिजली सी बरसती है अगर है ज़िंदगी मंज़ूर बे-सोचे फ़ना हो जा मज़ाक़-ए-आशिक़ी में नीस्ती का नाम हस्ती है यकायक फिर चराग़ उम्मीद के होने लगे रौशन ये सुब्ह-ए-रोज़-ए-महशर है कि शाम-ए-सुब्ह-ए-हस्ती है ख़ुदा से हुक्म-ए-तंसीख़-ए-अजल माँगेंगे महशर में मगर 'सीमाब' ये तो क़िस्सा-ए-मा-बाद-ए-हस्ती है