ज़हर-ए-ग़म बे-मज़ा नहीं होता फिर भी क्यों हौसला नहीं होता देख लेता है मुझ में अक्स अपना और वो ख़ुद आइना नहीं होता सारे रिश्ते चराग़ जलने तक फिर कोई आश्ना नहीं होता मस्लहत बन गई है मोहर-ए-सुकूत अब कोई लब-कुशा नहीं होता लब न खोलो कि लोग कहते हैं इस ज़माने में क्या नहीं होता क्या हँसे कोई मुस्कुराए क्या रक़्स-ए-गुल बे-सबा नहीं होता क्या कहें वक़्त की कमाँ को 'अयाज़' तीर कोई ख़ता नहीं होता