ज़हर-ए-ग़म काम कर गया शायद कोई जाँ से गुज़र गया शायद दिल अजब हालत-ए-क़रार में है ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया शायद चाँद इक साथ साथ चलता था रात के पार उतर गया शायद मेरी मंज़िल पुकारती थी मुझे लौट कर वो भी घर गया शायद अब जो हमराह कोई चाप नहीं आख़िरी हम-सफ़र गया शायद मौत क्यों इस क़दर अज़ीज़ हुई ज़ीस्त से कोई डर गया शायद