ज़ाहिद तिरी निगाह ख़ुदा-आश्ना नहीं तू जानता ज़रूर है पहचानता नहीं जंगल के फूल से है इबारत मिरा नसीब वो नाव हूँ कि जिस का कोई नाख़ुदा नहीं क्या जाने कैसे शहर-ए-ख़मोशाँ के लोग हैं आवाज़ दे रहा हूँ कोई बोलता नहीं हैरत है जिस का ताज-महल पेश-ए-लफ़्ज़ है लोगों ने उस किताब को अब तक पढ़ा नहीं ले आई है मोहब्बत-ए-इंसाँ मुझे वहाँ जिस रास्ते में और कोई नक़्श-ए-पा नहीं क्या होगा इस सफ़ीने का अंजाम ऐ 'निहाल' तूफ़ाँ से खेलने का जिसे हौसला नहीं