ज़हीन आप के दर पर सदाएँ देते रहे जो ना-समझ थे वो दर-दर सदाएँ देते रहे न जाने कौन सी आए सदा पसंद उसे सो हम सदाएँ बदल कर सदाएँ देते रहे पलट के देखना तो उस का फ़र्ज़ बनता था सदाएँ फ़र्ज़ थीं जिन पर सदाएँ देते रहे मैं अपने जिस्म से बाहर तलाशता था उन्हें वो मेरे जिस्म के अंदर सदाएँ देते रहे हमारे अश्कों की आवाज़ सुन के दौड़ पड़े वो जिन की प्यास को सागर सदाएँ देते रहे तुम्हारी याद में फिर रत-जगा हुआ कल और सहर में नींद के पैकर सदाएँ देते रहे