ज़िक्र में आते हैं जब अल्फ़ाज़ कुछ हम-सुख़न बदले तिरे अंदाज़ कुछ आज-कल माहौल कुछ अच्छा नहीं हैं छुपे महफ़िल में दस्त-अंदाज़ कुछ रोज़ जलते हैं पतंगे किस लिए और बुझती लौ है बे-आवाज़ कुछ बच गईं ये तो करिश्मा हो गया हद में सूरज के जो थीं परवाज़ कुछ आ गई हैं तल्ख़ियाँ किरदार में हो गए बे-पर्दा है ए'जाज़ कुछ मुस्कुराना और मुँह का फेरना हम समझ पाए न अब तक राज़ कुछ एक तूफ़ाँ सा उठा है उस तरफ़ उड़ रहे हैं इस तरफ़ भी बाज़ कुछ इश्क़ के बाज़ार में आ ही गए जो भी हो अंजाम हो आग़ाज़ कुछ