ज़िक्र-ए-जमाल-ए-सुब्ह न कुछ फ़िक्र-ए-शाम है अफ़्साना-ए-हयात अभी ना-तमाम है बदमस्त है कोई तो कोई तिश्ना-काम है कहने को मय-कदे में तिरे फ़ैज़ आम है मंज़िल है कोई ख़ास न कोई मक़ाम है बे-राह ज़िंदगी है मगर तेज़-गाम है देखो तो बे-नियाज़ है दुनिया से दर्द-ए-इश्क़ समझो तो ये भी इक ग़म-ए-दौराँ का नाम है ज़ाहिद फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-जन्नत सही मगर हम काफ़िरान-ए-इश्क़ पे दोज़ख़ हराम है रंग-ए-बहार है न नशात-ए-नज़ारा है ऐ बाग़बाँ सलाम अगर ये निज़ाम है 'अज़्मत' ये अहल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का है फ़ैसला वो दर्द-ए-ज़िंदगी है जो अपना कलाम है