रहज़नी है सर-ए-बाज़ार तुम्हें क्या मालूम तुम तो हो क़ाफ़िला-सालार तुम्हें क्या मालूम नाम किस शय का है आज़ार तुम्हें क्या मालूम ज़िंदगी गुल है कि है ख़ार तुम्हें क्या मालूम महव-ए-आईना हो तुम तुम को ख़बर भी क्यों हो कौन किस का है तलबगार तुम्हें क्या मालूम मेरे हँसने पे न जाओ ये मिरी आदत है दिल पे चलती है जो तलवार तुम्हें क्या मालूम सर-ए-बाज़ार लहू बिकता है फ़न बिकता है हाँ मगर गर्मी-ए-बाज़ार तुम्हें क्या मालूम तुम ने आँखों में कोई रात कहाँ काटी है टूटते तारों की झंकार तुम्हें क्या मालूम जिन को आ जाता है जीने का सलीक़ा 'अज़्मत' मुस्कुराते हैं सर-ए-दार तुम्हें क्या मालूम