ज़िंदा हैं मिरे ख़्वाब ये कब याद है मुझ को हाँ तर्क-ए-मोहब्बत का सबब याद है मुझ को तफ़्सील-ए-इनायात तो अब याद नहीं है पर पहली मुलाक़ात की शब याद है मुझ को ख़ुश्बू की रिफ़ाक़त का नशा टूट रहा है लेकिन वो सफ़र दाद-तलब याद है मुझ को अब शाम के हाथों जो गिरफ़्तार है सूरज दोपहर में था क़हर-ओ-ग़ज़ब याद है मुझ को ऐवान मिरी रूह के रौशन किए जिस ने वो शोख़ी-ए-यक-जुम्बिश-ए-लब याद है मुझ को कुछ दिन से मुक़य्यद हूँ मैं वीराना-ए-जाँ में हालाँकि कोई शहर-ए-तरब याद है मुझ को क्यूँ याद दिलाते हो मुझे चाँदनी रातें पैमान-ए-वफ़ा तुम से है सब याद है मुझ को वो शख़्स 'ख़याल' आज जो रू-पोश है मुझ में थे उस में कमालात अजब याद है मुझ को