तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने कहाँ सहर हो कहाँ शाम हो ख़ुदा जाने हरम हमीं से हमीं से हैं आज बुत-ख़ाने ये और बात है दुनिया हमें न पहचाने हरम की राह में हाइल नहीं हैं बुत-ख़ाने हरम से अहल-ए-हरम हो गए हैं बेगाने ये ग़ौर तू ने किया भी कि हश्र क्या होगा तड़प उट्ठे जो क़यामत में तेरे दीवाने 'अज़ीज़' अपना इरादा कभी बदल न सका हरम की राह में आए हज़ार बुत-ख़ाने