ज़िंदगी बस वो ज़िंदगी होगी जो किसी हिज्र में कटी होगी उम्र-ए-रफ़्ता के ग़म में क्यों रोएँ तेरी दहलीज़ पर पड़ी होगी आप की दीद और चश्म-ए-फ़क़ीर किस क़यामत की वो घड़ी होगी चारों जानिब से तीर आ रहे थे शिस्त तो आप ने भी ली होगी मुझ पे आवाज़े कसने वालों में इक नुमायाँ सदा तिरी होगी रौनक़-ए-राह में न गुम होना अगली मंज़िल बहुत कड़ी होगी दिल की शमएँ जला रखो प्यारे आध रस्ते में रात भी होगी हम जिसे मौत गिन रहे हैं यहाँ दूजे आलम में ज़िंदगी होगी