ज़िंदगी दहर में सद-रश्क-ए-इरम होने तक कितनी बे-कैफ़ रही सुब्ह-ए-अलम होने तक अहल-ए-दिल राह-ए-मोहब्बत में न जाने कितने मिट गए हैं तिरी इक चश्म-ए-करम होने तक ख़ून-ए-दिल होगा रवाँ चश्म-ए-तमन्ना से मिरी जादा-ए-शौक़ में अंदाज़ा-ए-ग़म होने तक मुद्दतों बहर-ए-ख़यालात में डूबा ही रहा लौह-ए-दिल पर तिरा इक नाम रक़म होने तक किसी सूरत भी सुकूँ दिल को मयस्सर न हुआ तेरे दर पर सर-ए-तस्लीम के ख़म होने तक हर-नफ़स आलम-ए-तश्कीक में गुज़रा 'अहमद' ख़त्म ये मरहला-ए-दैर-ओ-हरम होने तक