ज़िंदगी एक ख़्वाब लगती है हर हक़ीक़त सराब लगती है साअ'त-ए-क़ुर्ब थी कि मौज-ए-बहार याद उस की गुलाब लगती है दास्ताँ मेरी सुन सको तो सुनो दर्द-ओ-ग़म की किताब लगती है इस क़दर प्यार इस क़दर नफ़रत तेरी फ़ितरत हबाब लगती है ज़ीस्त लटकी है अब सलीबों पर हर तमन्ना अज़ाब लगती है चेहरे कुम्हला रहे हैं कलियों के निय्यत-ए-गुल ख़राब लगती है 'आसिमा' हर किताब-ए-ज़ीस्त मुझे मौत का इंतिसाब लगती है