आए बालीं पे मिरे ईसी-ए-दौराँ हो कर क्यूँ मगर बैठ गए सर-ब-गरेबाँ हो कर रौनक़-ए-बज़्म तो हूँ सूरत-ए-परवाना मगर आज़माएँ तो मुझे शम-ए-फ़रोज़ाँ हो कर न तो जीने का मज़ा है न सकूँ मरने में ज़िंदगी रह गई इक ख़्वाब-ए-परेशाँ हो कर हम-नफ़स पूछ तो ले हाल-ए-नशेमन भी ज़रा बर्क़ सय्याद के घर आई गुलिस्ताँ हो कर न रही ताब-ए-नज़र लुत्फ़-ए-तमाशा मालूम क्या किया आप के जलवों ने परेशाँ हो कर दर्द भी तुम ने दिया है तो दवा भी तुम दो मेरे पहलू में रहो दर्द का दरमाँ हो कर बे-बस इतने हुए क्यूँ इश्क़-ए-बुताँ में 'ज़ाकिर' कुफ़्र बकने लगे इक मर्द-ए-मुसलमाँ हो कर