ज़िंदगी ग़म की आँच सह कोई यूँ जली यूँ बुझी कि धूल हुई हम ने भी जश्न-ए-गुल को देखा था आज तक सोचते हैं भूल हुई क्या करें अपनी इस तबीअ'त को आप से मिल के भी मलूल हुई हुस्न-ए-शीरीं रहा शिकार-ए-हवस जेहद-ए-फ़रहाद बे-हुसूल हुई हम हैं वो कुश्तगान-ए-शौक़ जिन्हें सोहबत-ए-दार भी क़ुबूल हुई ले सँभल ज़ुल्मतों के रखवाले अपना अब रौशनी उसूल हुई किस को हँसता मिला चमन में 'रियाज़' ग़ुन्चग़ी किस की खिल के फूल हुई