ज़िंदगी हाथ से सिपर रख दे रूह में मेरी इक शरर रख दे शब की तन्हाई मुझ से कहती है मेरे शानों पे अपना सर रख दे रौशनी क़र्ज़ माँगता है क्यों उठ अंधेरे निचोड़ कर रख दे आ रही है फिर इंतिज़ार की रात फिर दिया एक ताक़ पर रख दे वो जो परदेस जा रहा है 'नसीम' उस की आँखों में अपना घर रख दे