ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे मुल्क बसता है मिटे या हम रहे दिल रहे पीरी में भी तेरा जवाँ आख़िरी दम तक यही दम-ख़म रहे चाहिए इंसान का दिल हो ग़नी पास माल ओ ज़र बहुत या कम रहे क्या इसी जन्नत की ये तहरीस है जिस में कुछ दिन हज़रत-ए-आदम रहे वस्ल से मतलब न रख तू इश्क़ का दम भरे जा दम में जब तक दम रहे लाग इक दिन बन के रहती है लगाव हाँ लगावट कुछ न कुछ बाहम रहे इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे शर्क़ से जब नूर चमका तो कहाँ बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम रहे हुस्न की दुनिया का है दाएम शबाब हश्र तक उस का यही आलम रहे है सुरूर-ए-हुस्न 'कैफ़ी' ला-यज़ाल दर-ख़ुर-ए-ज़र्फ़ उस में बेश ओ कम रहे