मुझ सा भी कोई इश्क़ में है बद-गुमाँ नहीं क्या रश्क देख कर मुझे रंग-ए-ख़िज़ाँ नहीं आँखों से देख कर तुझे सब मानना पड़ा कहते थे जो हमेशा चुनें है चुनाँ नहीं उठ कर सहर को सजदा-ए-मस्ताना के सिवा ताअ'त क़ुबूल ख़ातिर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं अफ़्सुर्दा दिल हो दर दर-ए-रहमत नहीं है बंद किस दिन खुला हुआ दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं ऐ जज़्ब-ए-शौक़ रहम कि मद्द-ए-नज़र है यार जा सकती वाँ तलक निगह-ए-ना-तवाँ नहीं शब उस को हाल-ए-दिल ने जताया कुछ इस तरह हैं लब तो क्या निगह भी हुई तर्जुमाँ नहीं कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़ शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं अच्छा हुई निकल गई आह-ए-हज़ीं के साथ इक क़हर थी बला थी क़यामत थी जाँ नहीं जाने है दिल फ़लक का मिरी सख़्त-जानियाँ उन ना-तावनियों को पहुँचती तवाँ नहीं कहता हूँ उस से कुछ मैं निकलता है मुँह से कुछ कहने को यूँ तो हैगी ज़बाँ और ज़बाँ नहीं महका हुआ है बैत-ए-हुज़न देखना कोई आया नसीम-ए-मिस्र का हो कारवाँ नहीं लब बंद हूँ तो रौज़न-ए-सीना को क्या करूँ थमता तो मुझ से नाला-ए-आतिश-इनाँ नहीं क्या कुछ न कर दिखाऊँ पर इक दिन के वास्ते मिलता भी हम को मंसब-ए-हफ़्त-आसमाँ नहीं वो शाख़-ए-नख़्ल-ए-ख़ुश्क हूँ मैं कुंज-ए-बाग़ में देखे है भूल कर भी जिसे बाग़बाँ नहीं बे-वक़्त आए दैर में क्या शोरिशें करें हम पीर-ओ-पीर-ए-मय-कदा भी नौजवाँ नहीं 'आज़ुर्दा' ने पढ़ी ग़ज़ल इक मय-कदे में कल वो साफ़-तर कि सीना-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं