ज़िंदगी के ग़म लाखों और चश्म-ए-नम तन्हा हसरतों की मय्यत पर रो रहे हैं हम तन्हा मिल सका न कोई भी हम-सफ़र ज़माने में काटते रहे बरसों जादा-ए-अलम तन्हा खेल तो नहीं यारो रास्ते की तन्हाई कोई हम को दिखलाए चल के दो-क़दम तन्हा दिल को छेड़ती होगी याद-ए-रफ़्तगाँ अक्सर लाख जी को बहलाएँ शैख़-ए-मोहतरम तन्हा मस्जिदें तरसती हैं उस तरफ़ अज़ानों को इस तरफ़ शिवालों में रह गए सनम तन्हा इस भरी ख़ुदाई में वो भी आज अकेले हैं ख़ल्वतों में रह कर भी जो रहे थे कम तन्हा थी 'क़तील' चाहत में उन की भी रज़ा शामिल फिर भी हम ही ठहरे हैं मोरिद-ए-सितम तन्हा