ज़ोर यारो आज हम ने फ़तह की जंग-ए-फ़लक यक तमांचे में कबूदी कर दिया रंग-ए-फ़लक गर्मी-ए-दूकाँ पर अपनी शीशागर सरकश न हो ढूँढता फिरता है तेरे सर के तईं संग-ए-फ़लक कज-रवी से उस की गर आक़िल है तू ग़ाफ़िल न रह इन दिनों और ही नज़र आता है कुछ ढंग-ए-फ़लक तू जो तुल बैठे तो पल्ले चाहिए हों महर-ओ-माह ऐसी मीज़ाँ के तईं लाज़िम है पासंग-ए-फ़लक शौक़ है गर सैर-ए-बाला का तो 'हातिम' हो सवार कहकशाँ से खींच कर लाया हूँ अब तंग-ए-फ़लक