ज़िंदगी के लिए इतना भी क्या हैराँ होना मुझ को आता नहीं बे-वज्ह परेशाँ होना माँगना जो भी हो माँगूँगी मैं अपने रब से माँग कर बंदे से आया न पशेमाँ होना यूँ तो गुफ़्तार में माहिर हैं बहुत से लेकिन इतना आसाँ नहीं सच्चाई पे क़ुर्बां होना मुझ से उल्फ़त है तो बस मेरे ही बन कर रहना भूल कर भी न कभी ग़ैर के मेहमाँ होना हर घड़ी तीरगी रहती है मुसल्लत मुझ पर मैं ने देखा ही नहीं दिल का दरख़्शाँ होना दौर-ए-हाज़िर को लगी किस की नज़र-बद 'ज़रयाब' आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना