ज़िंदगी ख़ाक-बसर शोला-ब-जाँ आज भी है तुझ को खो कर तुझे पाने का गुमाँ आज भी है एक बे-नाम सी उलझन है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत एक ग़म नाम सा एहसास-ए-ज़ियाँ आज भी है ख़ाक से ता-ब-फ़लक तेरी निगाहों का तिलिस्म ठहरा ठहरा सा जहान-ए-गुज़राँ आज भी है तर्क-ए-उल्फ़त में भी उल्फ़त के निशाँ बाक़ी हैं क़ाफ़िला लुट के तिरी सम्त रवाँ आज भी है कितने साक़ी हैं कि हैं जाम-ब-कफ़ कल की तरह शुग़्ल-ए-मय है कि 'सहर' बार-ए-गराँ आज भी है