ज़िंदगी को मौत की ज़द पर जो ला सकता नहीं

ज़िंदगी को मौत की ज़द पर जो ला सकता नहीं
मौत के आग़ोश में वो मुस्कुरा सकता नहीं

उस की तोहमत अपने सर बार-ए-अमानत ले लिया
बोझ वो इंसाँ जो अपना भी उठा सकता नहीं

रब्त है हर शय से फिर भी इस जहाँ में दोस्तो
आदमी ख़ुद आदमी के काम आ सकता नहीं

ये जहाँ है आज़माइश-गाह-ए-अरबाब-ए-वफ़ा
लाख चाहे भी तो इंसाँ मुस्कुरा सकता नहीं

क्या इसी का नाम है साक़ी तिरी दरिया-दिली
मय तो मय पानी भी तू हम को पिला सकता नहीं

अज़्म का सूरज लिए मैं जगमगाता हूँ 'नशात'
इन अँधेरों को कभी ख़ातिर में ला सकता नहीं


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