वो मिरा कसरत-ए-अनवार से हैराँ होना हर तरफ़ तूर-ब-कफ़ उन का नुमायाँ होना किस क़दर है तिरी रहमत पे भरोसा या-रब मुझ को आया न गुनाहों पे पशेमाँ होना अहल-ए-दिल चल तो दिए हैं दर-ए-जानाँ की तरफ़ किस की क़िस्मत में है ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ होना उन के वा'दे की ख़ुशी का ये मुकम्मल है सुबूत शाम से पहले मिरे घर में चराग़ाँ होना आदमी चाहे तो कोशिश से फ़रिश्ता बन जाए सख़्त दुश्वार है उस का मगर इंसाँ होना फ़ैज़ ये मेरे जुनूँ का है चमन में जारी ग़ुंचों ने सीख लिया चाक-गरेबाँ होना जिस में अफ़्सुर्दा हों ग़ुंचे भी बहारें भी 'नशात' क़ाबिल-ए-फ़ख़्र कहाँ उस का गुलिस्ताँ होना