ज़िंदगी पाने की हसरत है तो मरता क्यूँ है शहर-ए-ममनूअा' से हो कर वो गुज़रता क्यूँ है जब भी अमृत की कोई बूँद ज़बाँ पर टपकी इक अजब ज़हर सा रग रग में उतरता क्यूँ है छू के हर शय को गुज़र जाता है वो सैल-ए-बला मेरे बे-नाम जज़ीरे में ठहरता क्यूँ है हम को मा'लूम है लम्हात का हासिल भी 'शोएब' दिल मगर डूब के हर लम्हा उभरता क्यूँ है