ज़िंदगी सच की हिमायत नहीं करने देती ऐसी कोई भी इबादत नहीं करने देती मस्लहत अक़्ल से कहती है कि इक हद में रहो और दिल को भी शरारत नहीं करने देती उलझी रहती है नज़र से कोई दुज़्दीदा-नज़र क़ल्ब-ओ-जाँ की जो हिफ़ाज़त नहीं करने देती अब तो हाल-ए-दिल-ए-बीमार ख़ुदा ही जाने हालत-ए-ज़ार अयादत नहीं करने देती हम जुदाई में तो बेज़ार नहीं थे ऐसे क्या मोहब्बत ये रिफ़ाक़त नहीं करने देती काम कुछ करने नहीं देते रियासत को भी हम और कुछ हम को रियासत नहीं करने देती तेरी जन्नत को तरसती हुई तेरी दुनिया तेरी दुनिया पे क़नाअत नहीं करने देती तिश्नगी मोहर-ब-लब तिश्ना-लबी है अब तो चश्म-ए-साक़ी की शिकायत नहीं करने देती शम-ए-जाँ भूल गई कैसे भड़क उठना था शाम-ए-ग़म सुब्ह-ए-क़यामत नहीं करने देती इर्तिक़ा की तो हिमायत में ग़ज़ल है 'पिंहाँ' बस रिवायत से बग़ावत नहीं करने देती