ज़िंदगी तेरी तलब थी तो ज़माने देखे मरते मरते कई जीने के बहाने देखे हौसला था या करम हो कि वफ़ादारी हो हम ने उल्फ़त में कई ख़्वाब सुहाने देखे आँख से जारी रहा अश्कों का बहना क्यूँकर ग़म ने ठुकराया तो फिर ज़ख़्म पुराने देखे ज़ख़्म पर ज़ख़्म लगाने की न आदत थी उसे मेरे क़ातिल ने नए रोज़ निशाने देखे आप का जुर्म नहीं हम ही ख़ता कर बैठे दिल ने बस चाहा तुम्हें ग़म ने ठिकाने देखे हम पे उल्फ़त की हुई ऐसी अताएँ 'बालिग़' जिस तरफ़ ढूँड लिए ग़म के ख़ज़ाने देखे