ज़िंदगी उलझी है बिखरे हुए गेसू की तरह

ज़िंदगी उलझी है बिखरे हुए गेसू की तरह
ग़म पिए जाते हैं उमडे हुए आँसू की तरह

आज वहशत का ये आलम है कि हर इंसाँ है
दश्त-ए-तजरीद के भागे हुए आहू की तरह

ज़ुल्म का आग उगलता हुआ सूरज सर पर
तपिश-ए-दर्द से हर साँस है अब लू की तरह

है गुलिस्ताँ में तिरी गुल-बदनी का शोहरा
काश तू गुज़रे अधर से कभी ख़ुश्बू की तरह

अस्सी उम्मीद पे आईना-ए-दिल धोते हैं
मुनअ'किस हो कोई सूरत मिरे मह-रू की तरह

शब-ए-फ़ुर्क़त में भी तन्हाई मयस्सर न हुई
लाख ग़म घेरे रहे मुझ को जफ़ा-जू की तरह

बे-दिली शर्त-ए-मुलाक़ात है तो यूँ ही सही
हम तिरे शहर में अब आएँगे साधू की तरह

डूबने लगती है जब रंग के सैलाब में आँख
याद तब उस की बचा लेती है जादू की तरह

सरज़निश भी तिरी बनती है सहारा मेरा
राह-ए-दुश्वार में फैले हुए बाज़ू की तरह

लज़्ज़त-ए-दहर में गुम होता है जब दिल 'असरा'
तब कसक उठता है वो दर्द के पहलू की तरह


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close