माना मक़ाम-ए-इशरत-ए-हस्ती बुलंद है मैं दिल को क्या करूँ कि उसे ना-पसंद है तुम को हिजाब मुझ को तमाशा पसंद है मेरी नज़र तुम्हारी नज़र से बुलंद है अल्लाह रे दिल की इश्क़ में दीवाना-वारियाँ अंदेशा-ए-ज़ियाँ है न ख़ौफ़-ए-गज़ंद है आँखों में आ चुकी है मोहब्बत की वारदात तूफ़ान-ए-बे-पनाह पियालों में बंद है अब उन का इंतिख़ाब करेगा ये फ़ैसला उल्फ़त बुलंद है कि तमन्ना बुलंद है 'माहिर' अज़ल में दिल ने किया ग़म का इंतिख़ाब उन की ख़ता नहीं है ये दिल की पसंद है