ज़िंदगानी की हक़ीक़त तब ही खुलती है मियाँ कार-ज़ार-ए-ज़ीस्त की जब नब्ज़ रुकती है मियाँ रोज़ हम ता'मीर करते हैं फ़सील-ए-जिस्म-ओ-जाँ रोज़ जिस्म-ओ-जाँ से कोई ईंट गिरती है मियाँ ख़्वाब से कह दो हुदूद-ए-चश्म से बाहर न हो आँख से ओझल हर इक ता'बीर चुभती है मियाँ कल यही चेहरे बहार-ए-हुस्न की पहचान थे आज उन चेहरों से गर्द-ए-उम्र उड़ती है मियाँ ख़्वाब हसरत अश्क उलझन नाला-ओ-फ़र्याद-ओ-ग़म किश्त-ए-जाँ में रोज़ फ़स्ल-ए-दर्द उगती है मियाँ झूट है जब ख़्वाहिश-ए-नाम-ओ-नमूद-ओ-तख़्त-ओ-ताज झूट की ख़्वाहिश में क्यूँ कर उम्र कटती है मियाँ वस्ल का दरकार हैं कुछ हिज्र के लम्हात भी वस्ल की ख़्वाहिश में शिद्दत यूँ ही बढ़ती है मियाँ देख कर 'ज़ाकिर' ग़रीब-ए-शहर की फ़ाक़ा-कशी मौत अपने आप सौ सौ बार मरती है मियाँ