ज़िंदगानी की मसर्रत भी जुदा हम से हुई जुर्म ये था कि न तरदीद-ए-ख़ुदा हम से हुई हम गुनहगार सही फिर भी तिरे बंदे हैं हर शब-ए-ग़म में ख़ुदा तेरी सना हम से हुई सर उठाते हुए चलते रहे सहराओं में किसी हालत में न मजरूह अना हम से हुई कोई ऐसा था जो कहता न बुरों को भी बुरा बस तिरे शहर में ये रस्म अदा हम से हुई हम तो बस तेरे सहारे ही चले हैं अब तक जाने क्यों आज तू बरगश्ता सबा हम से हुई हल्फ़ ले कर जो कटहरे में गए हम 'ख़ुर्शीद' तेरा ही नाम लिया इतनी ख़ता हम से हुई