जैसे कोई दायरा तकमील पर है इन दिनों मुझ पर गुज़िश्ता का असर है ज़िंदगी की बंद सीपी खुल रही है और उस में अहद-ए-तिफ़्ली का गुहर है दिल है राज़-ओ-रम्ज़ की दुनिया में शादाँ अक़्ल को हर आन तशवीश-ए-ख़बर है इक तवक़्क़ुफ़-ज़ार में गुम है तसलसुल लम्हा-ए-मौजूद गोया उम्र भर है ज़ेहन में रौज़न अनोखे खुल रहे हैं जिन से अन-सोची हवाओं का गुज़र है फ़ासले तक़्सीम ही होते नहीं जब 'साज़' फिर क्या सुस्त-रौ क्या तेज़-तर है