किताब पढ़ते रहे और उदास होते रहे अजीब शख़्स था जिस के अज़ाब ढोते रहे कोई तो बात थी ऐसी कि इस तमाशे पर हँसी भी आई मगर मुँह छुपा के रोते रहे हमी को शौक़ था दुनिया के देखने का बहुत हम अपनी आँखों में ख़ुद सूइयाँ चुभोते रहे बस अपने-आप को पाने की जुस्तुजू थी कि हम ख़राब होते रहे और ख़ुद को खोते रहे ज़मीं की तरह समुंदर भी था सफ़र के लिए मगर ये क्या कि यहाँ कश्तियाँ डुबोते रहे हमें ख़बर न हुई और दिन भी डूब गया चटख़ती धूप का बिस्तर बिछाए सोते रहे