जैसे नए ज़माने की रफ़्तार गिर पड़ी ऐसे पुराने वक़्त की दीवार गिर पड़ी उठ उठ के आ तो पहुँची हैं लहरें इधर मगर क्या चीज़ जाने दरिया के उस पार गिर पड़ी इस बार क्या गिरी है कि कोहराम मच गया पगड़ी तो इस से पहले कई बार गिर पड़ी लफ़्ज़ों को हम ने तोल के रक्खा था होंट पर फिर क्यूँ बहस में बात वज़न दार गिर पड़ी बाज़ार में तो फ़न के ख़रीदार अब भी हैं किस ने कहा कि क़ीमत-ए-फ़नकार गिर पड़ी दिन था थकन से चूर उफ़ुक़ पे निढाल साल सूरज के साथ शाम भी लाचार गिर पड़ी देखा मुख़ालिफ़ों में जो शामिल रफ़ीक़ को 'परवेज़' अपने हाथ से तलवार गिर पड़ी