ख़ुद अपना अपने आप को उस्ताद कर कभी है मशवरा क़ुबूल तो इरशाद कर कभी होना है तुझ को आश्ना उस के मिज़ाज से तो शाद हादसों को भी नाशाद कर कभी क्यों एक दाएरे में ही रक्खा है बाँध के इस क़ैद से ख़याल को आज़ाद कर कभी मंज़र में ख़ार सा जो खटकता है जिस जगह हिस्से को उस जगह से हाँ आबाद कर कभी दुनिया को ए'तिबार हो जिस पर यक़ीन हो इक नींद आए ख़्वाब कोई लाद कर कभी सूरज था अलविदा'अ हुआ शाम हो गई किस ने कहा किसी से कि फ़रियाद कर कभी जो धुंद बन के रह गए 'परवेज़' ज़ेहन में खुल के दिखाई देंगे तुझे याद कर कभी