जैसे तज़ाद होता है लैल-ओ-नहार में वैसा ही फ़र्क़ होता है क़ौल-ओ-क़रार में तुम ही बताओ क्या है मिरे इख़्तियार में मैं इस बिसात-ए-दहर पे हूँ किसी शुमार में क्या जाने क्या कशिश है ये मुश्त-ए-ग़ुबार में जकड़े हुए सभी हैं ग़म-ए-रोज़गार में तड़पा है ख़ूब माही-ए-बे-आब की तरह अब भी दिल-ए-हज़ीं हैं तिरे इंतिज़ार में महसूस कर रहे हैं मगर बोलते नहीं तब्दीलियाँ जो आई हैं किरदार-ए-यार में ये इंक़लाब देखा है दौर-ए-जदीद का ग़द्दार ख़ुद को गिनते हैं अब जाँ-निसार में 'मक़्सूद' वो भी बहर-ए-मुलाक़ात आएँगे पथरा गई हैं आँखें इसी इंतिज़ार में