जैसी होनी हो वो रफ़्तार नहीं भी होती राह इस सम्त की हमवार नहीं भी होती मैं तही-दस्त लड़ाई के हुनर सीखता हूँ कभी इस हाथ में तलवार नहीं भी होती फिर भी हम लोग थे रस्मों में अक़ीदों में जुदा गर यहाँ बीच में दीवार नहीं भी होती वो मिरी ज़ात से इंकार किए रखता है गर कभी सूरत-ए-इंकार नहीं भी होती जिस को बेकार समझ कर किसी कोने में रखें ऐसा होता है कि बेकार नहीं भी होती दिल किसी बज़्म में जाते ही मचलता है 'ख़याल' सो तबीअत कहीं बे-ज़ार नहीं भी होती