जज़्ब की सब इंतिहाओं का तमाशा हर-तरफ़ तुम कहा थे तुम नहीं थे मैं ही मैं था हर-तरफ़ ये मिरे दिल में सिमट आएगी इक दिन देखना तुम ने किस आलम में फैलाई थी दुनिया हर-तरफ़ दश्त में भी आ मिले थे काएनाती सिलसिले वहशतों ने कर दिया था मेरा चर्चा हर-तरफ़ तुम ने मेरे दर पे ला छोड़ा उसे अच्छा किया वर्ना यूँ ही बे-सबब ये ग़म भटकता हर-तरफ़ मेरे हक़ में तो हर-इक मौसम ख़िज़ाँ-आसार था किस की सन्नाई ने गुल-मंज़र सजाया हर-तरफ़